Wednesday, July 20, 2016

लम्हा

जिन्दगी तू पलट के देखती क्यों नहीं

गुजरे लम्हों को समेटती क्यों नहीं

माना यादें वो रुलाती हैं

पर कोई लम्हा ऐसा भी था

जो सिर्फ और सिर्फ मेरा था

सिमट जाये ए यादों के पन्नों में

पहले इसके

ए जिंदगी उस पल के झरोखें से

एक बार फिर बचपन का अहसास करादे

जो लम्हा मेरा था

एक बार फिर उससे मिला दे

एक बार फिर उससे मिला दे

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. शास्त्री जी
    शुक्रिया
    सादर
    मनोज

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