Friday, January 22, 2016

राह

चला था अकेला जिस नयी राह पर

मुसाफ़िर तो यूँ अनेक मिले उस राह पर

हमसफ़र कोई मिला नहीं मगर उस राह पर

गुजरती घड़ियाँ जैसे सादिया बन गयी

वक़्त जैसे ठहर गया उस राह पर आके

भूलभुलैया थी पगडंडियों की उस राह के आगे

कदम रुक गए उस राह पे आके

दिशाहीन हो भटक गया उस राह के आगे

नामों निशां ना था मंजिल का उस राह के आगे

कशमकश की इस राह पे आके

अब तो यह भी भूल गया जाना किस राह के आगे

अब तो यह भी भूल गया जाना किस राह के आगे 


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