Thursday, September 26, 2013

स्वाभिमान

हवायें रुख बदल सकती है 

गति पर मेरी बदल सकती नहीं 

बाँध ले मुझे अपने पाश में 

ताकत इनमे इतनी नहीं 

स्वछन्द विचरण की अनुभूति 

चारदीवारी में मिल सकती नहीं 

जकड ले क़दमों को मेरे 

बेड़ियाँ वो अब तलक बनी नहीं 

शर्तों पे अपनी मैं जीता हूँ 

दासता मुझे गंवारा नहीं 

अभिमान है अपने स्वाभिमान पे 

राह की कोई बाधा तभी बड़ी नहीं 

Monday, September 16, 2013

चेतना

मैं ख्यालों में सपने बुनता गया

एक अनजानी तस्वीर में

रंग भरता गया

पर खाब्ब हकीक़त नहीं बनते

यह भूलता गया

पहेली थी यह गहरी शायद

इन्द्रधनुषी इसकी छटा में

खोता चला गया

अच्छी लगती वो खाब्बों की ताबीर अगर

चेतना उसमे जगा गया होता 

प्यार का रंग

उनकी हसीन मुस्कराहट पे

आज फिर मर मिटने को दिल आया

जाने वो कौन सी कशिश थी

दिल को सिर्फ उनका ही ख्याल आया

तसब्बुर में कोई ओर था

बिन उनके दीदार को

चाँद भी फीका नजर आता

जूनून के इस रंग में

बेवफाई में भी उनकी

प्यार का रंग नजर आया 

ख्यालों की बारिस

ख्यालों की बारिस में भीगा करते थे

रूमानी वादियों में टहला करते थे

सफ़र का ये मोड़ बड़ा ही सुहाना था

अंदाज प्यार का बड़ा ही निराला था

यादों की ताबीर को

दिल से रूबरू किया करते थे

अक्सर तन्हाईयों में खुद से

तुम्हारा जिक्र किया करते थे

पहले तुम महफ़िल में नजर आते थे

अब चाँद के दीदार में नजर आते हो

अक्सर तुम यादों में भी

दिल के तारों को छेड़ जाते हो 

Wednesday, September 4, 2013

राहों में

क्यों मिले तुम उन राहों में

मंजिल जिनकी कोई ना थी

सिर्फ सपनों की दुनिया थी

और बेकरार जिंदगानी थी

मिल ना सके जो प्यार कभी

उस कशिश में वो आरजू कहा थी

जुदा थी जिन्दगी की राहे मगर

मिलन की आस फिर भी पास थी

सुलग रही थी जो चिंगारी सीने में

आंसुओ के सैलाब में वो भी गुम थी

क्यों मिले तुम उन राहों में

मंजिल जिनकी कोई ना थी

मंजिल जिनकी कोई ना थी

 

ख़त

ख़त आपको लिख भेजा है

हाले दिल वयां किया है

स्याही बना लहू को

दिल ए जज्बातों को उकेरा है

गुम हो ना जाए कही ये

खतों के अम्बार में

नजरे इनायत आपकी भी हो

हमारे प्यार भरे इकरार पे

ओ मेरी नूर ए नजर

बैरंग इसलिए ख़त भेज दिया है

सीने से जब आप इसे लगाओगी

बिन पढ़े ही

मजमु दिल में उतर आएगा 

Sunday, September 1, 2013

जिन्दगी की रफ़्तार

हाथ जो छूटा महबूब का

रफ़्तार जिन्दगी की थम गयी

खुदा माना था जिसे

वो महबूब हमसे रूठ गयी

था ऐतबार सबसे ज्यादा जिसपे

वो परछाई शून्य में कहीं खो गयी

ये खुदा अब तो यकीन रहा नहीं

खुद के साये पे भी मुझको

जिन्दगी के इस मुक़ाम पर

जीने की कोई वजह भी तो शेष ना बची