Tuesday, October 12, 2010

सच्चे ख्वाब

तम्मनाये दिल में अठखेलिया करती है

ख्वाब सच होने के सपने संजोते है

सपने सच हो या ना हो

दिल में उमीद की किरण दिव्यमान करती है

बुलंद हौसलों की चमक

आँखे वयां करती है

शेरावाली

ओ माँ शेरावाली ओ माये

लेके खाली झोली आये तेरे द्वारे

भर दिए अन्न धन के भंडारे

मुझ निर्धन की कुटिया में आये

ओ माँ शेरावाली ओ माये

जब बबी पुकारे भक्त तुझको

तू दौड़ी चली आये

राख दे हाथ तू जो सर पे

सारी चिंता पल में दूर हो जाये

ओ माँ शेरावाली ओ माये

जो जन ध्यान धरे तेरा

संकट उनको छूने ना पाये

ओ माँ शेरावाली ओ माये

तेरी महिमा गाये सारे नर और नारी

माता तेरी ममता बड़ी दुलारी

ओ माँ शेरावाली ओ माये

Friday, October 8, 2010

तक़दीर

किस्मत खुदा ने लिख दी

तक़दीर हमने खुद बना ली

ह़र हार में भी जीत की खुशबू महका दी

कुदरत देखती रह गयी

ओर काँटों की राहों को

फूलों की सेज बना दी

हमने अपनी तक़दीर खुद बना ली

मीठी यादें

भीगीं भीगीं सी तेरी यादें

महकी महकी सी तेरी साँसे

भीनी भीनी सी दिल की फिजाए

ओ यारा

होले होले जले मन सारा

तडपे जिया

खोजे तेरी बाहों का सहारा

ओ यारा

तेरी यादों की भीनी भीनी खुशबू से

छाये मस्ती चुपके चुपके

चढ़े रंग प्यार का होले होले

ओ यारा भीनी भीनी मीठी मीठी यादें

Sunday, October 3, 2010

आँखों ही आँखों

बेजुबा होती है दिल की जुबा

आँखे बया करती है दिल का हाल

रोग है ऐसा

धड़कने देतीहै सिर्फ साथ

बिन कुछ कहे

तभी हो जाता है

आँखों ही आँखों में प्यार

ख्वाब

तारों भरी रात

चन्दा का साथ

संजोये ख्वाब

काश हम भी होते

सितारों में आज

खेल रहे होते

लुका छिपी चाँद के साथ

Saturday, October 2, 2010

रचना

सुन्दर है वो रचना

फ्रस्फुटीत हो जिसमे जीवन की प्रेरणा

सपन्दन जिसके रचे

नई अंकुरों की सफलता

शब्दों में जिसके छिपी हो

मिठास भरी मृदुता

निहित हो जिसमे

प्रकृति की समीपता

सुन्दर होती है वो रचना

राजनीति

आधार जिसका हो जनाधार

मुक्त कंठो की प्रशंशा का वह है पात्र

बड़ा ही चतुर वह सुजान हो

जिसके हाथों में अवाम की लगाम हो

महारत पाली जिसने इस खेल में

समझो

बादशाहत उसकी जम गयी राजनीति के खेल में

मस्तिष्क

यादों से जिसकी शुरू हो दिन की शुरुआत

वो है यही दिल के आस पास

तभी नज़र आती है

मन मस्तिष्क को

अनजानी आकृति में भी

उनकी ही पहचान

अब तलक तरो ताजा है

उनकी परछाई की भी याद

द्वन्द

उलझ गयी जिन्दगी

मंदिर मस्जिद के द्वन्द में

कोई कहे मंदिर बने

कोई कहे मस्जिद बने

पर ये भूल गए सभी

लिखी हो जिसकी इबारत

बेगुनाहों के खून से

कबूल नहीं होगी

रब को वो इबादत भी कभी

फिर क्यों करे द्वन्द

निकल मंदिर मस्जिद की होड़ से

लिखे एक नई इबारत

क्यों ना फिर भाई चारे के स्नेह की

लेखनी

लिखू कैसे शब्द गुम हो गए सारे जैसे

देखा लेखनी को जो नज़र भर

लगा कह रही हो

छोड़ा ना साथ मेरा

ओ मेरे हमसफ़र

थामे रहो तुम मेरी कलाई बस

लिखती चली जाऊँगी उम्र भर

देखना तुम

बरसने लगेंगे जब रंग

याद आने लगेंगे पुनः शब्द तब